कण्वाश्रम (Kanvashram) उत्तराखण्ड में स्थित एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थान है, जिसे सम्राट भरत की जन्मस्थली (Birthplace of Emperor Bharat) भी कहा जाता है। पौड़ी गढ़वाल (pauri gawhwal) जिले में कोटद्वार (Kotdwar) से 14 कि.मी. की दूरी पर शिवालिक पर्वत श्रेणी में हेमकूट और मणिकूट पर्वतों की गोद में स्थित ‘कण्वाश्रम’ ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल है।
माना जाता है कि यही कण्व ऋषि का आश्रम हुआ करता था। मालिनी नदी के तट पर स्थित कण्वाश्रम, एक अनूठा आश्रम है। यह घने जंगलों और सुरम्य पहाड़ियों से घिरा हुआ है। कण्वाश्रम का भारतीय इतिहास के पन्नों में अपना एक विशेष महत्व है और इसके बारे में पुराणों, वेदों, महाभारत जैसे महाकाव्यों और महान कवि कालीदास की पुस्तकों में लिखा गया है।
माना जाता है कि कण्वाश्रम ( Kanvashram ) वह स्थान है जहां विश्वामित्र और कण्व जैसे ऋषियों ने लंबे समय तक तपस्या की थी। एक किंवदंती के अनुसार, विश्वामित्र जब यहां तपस्या में लीन थे, तो यह देख भगवान इंद्र स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगे। उनका ध्यान भंग करने के लिए, इंद्र ने स्वर्ग की एक मनमोहक अप्सरा, मेनका को भेजा। बाद में उन दोनों के यहां एक बेटी, शकुंतला का जन्म हुआ। शकुंतला भरत की मां के रूप में जानी जाती है, जिनके नाम पर हमारे देश का नाम “भारत” पड़ा है। भरत को समर्पित एक छोटा-सा मंदिर भी यहां स्थित है।
सम्राट भरत की जन्मस्थान कण्वाश्रम (Kanvashram Birthplace of Emperor Bharat)
कोटद्वार (kotdwar) भाबर क्षेत्र की प्रमुख एतिहासिक धरोहरों में ‘कण्वाश्रम’ (Kanvashram) सर्वप्रमुख है, जिसका पुराणों में विस्तृत उल्लेख मिलता है। हज़ारों वर्ष पूर्व पौराणिक युग में जिस मालिनी नदी का उल्लेख मिलता है, यह आज भी उसी नाम से पुकारी जाती है तथा कोटद्वार के भाबर के बहुत बड़े क्षेत्र को सिंचित कर रही है।
कण्वाश्रम शिवालिक की तलहटी में मालिनी के दोनों तटों पर स्थित छोटे-छोटे आश्रमों का प्रख्यात विद्यापीठो का स्थान हुआ करता था। यहां मात्र उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा थी। इसमें वे शिक्षार्थी प्रविष्ट हो सकते थे, जो सामान्य विद्यापीठ का पाठ्यक्रम पूर्ण कर और अधिक अध्ययन करना चाहते थे। कण्वाश्रम चारों वेदों, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष, आयुर्वेद, शिक्षा तथा कर्मकाण्ड इन छ: वेदांगों के अध्ययन-अध्यापन का प्रबन्ध हुआ करता था। आश्रमवर्ती योगी एकान्त स्थानों में कुटी बनाकर या गुफ़ाओं के अन्दर रहते थे।’
कण्वाश्रम की पौराणिक कथा (Mythology of Kanwashram )
प्राचीन काल से ही मानसखंड तथा केदारखंड की यात्राएं श्रद्धालुओं द्वारा पैदल संपन्न की जाती थीं। हरिद्वार (Haridwar), गंगाद्वार से कण्वाश्रम, महावगढ़, ब्यासघाट, देवप्रयाग होते हुए चारधाम यात्रा अनेक कष्ट सहकर पूर्ण की जाती थी। .
‘स्कन्द पुराण’ केदारखंड के 57वें अध्याय में इस पुण्य क्षेत्र का उल्लेख निम्न प्रकार से किया गया है ‘कण्वाश्रम’ (Kanvashram) कण्व ऋषि का वही आश्रम है, जहां कभी मालिनी नदी के तट पर महर्षि कन्व का आश्रम हुआ करता था और इसी आश्रम के आश्रय में विश्वामित्र जी तपस्या करते थे यहीं पर कभी वेद की पवित्र ऋचाओं का समूह पाठ हुआ करता था और शकुन्तला ऋषि विश्वामित्र व अप्सरा मेनका की पुत्री थी।
यहीं विश्वामित्र की तपस्या भंग के फलस्वरूप भरत जननी शकुंतला का जन्म हुआ । और शकुंतला दुष्यंत की अदभुत मार्मिक प्रेम कहानी का जन्म हुआ जिसका सुखद अंत हस्तिनापुर जाकर हुआ । और इस प्रेम कहानी से जन्मे बालक भरत ही कालांतर में चक्रवर्ती सम्राट बने जिनके नाम से आर्यावर्त को “भारत” के नाम से प्रसिद्धी मिली जिनके नाम पर हमारे देश का नाम “भारत” पड़ा है।
महाभारत के अनुसार दुष्यंत एक बार गंगानदी पार करके मृगया हेतु गया। वहां वह मालिनी तट पर स्थित कण्व ऋषि के आश्रम में पहुंचा। कण्व आश्रम के बाहर गये हुवे थे। वहां उसे तत्कालीन विश्वामित्र और मेनका अप्सरा की पुत्री शकुंतला मिली , जिसे उसकी माता जन्मते ही वन में छोड़ गयी थी। इसे कण्व ने लाकर अपने आश्रम में पाला था। शुकुंत पक्षियों से रक्षा करने के कारण कण्व ने इसे शकुंतला नाम दिया था। भेंट होने पर शकुंतला ने अपनी जन्मकथा दुष्यंत को सुनाई।
दुष्यंत द्वारा प्रेमदान पर इसने बताया कि वह अपने पिता की सम्मति के बिना विवाह नहीं करना चाहती। इस पर दुष्यंत ने शकुंतला को विवाह के आठ भेद गिनाये, जिसमें गन्धर्व विवाह बिना पिता की सम्मति के हो सकता है। इस पर वह इस शर्त पर गन्धर्व विवाह को तैयार हुयी कि उसका पुत्र हस्तिनापुर का राजा बनेगा। शकुंतला की यह शर्त दुष्यंत ने मान ली और दोनों का गन्धर्व-विवाह हो गया।
विवाह के बाद शीघ्र ही अपनी राजधानी बुलाने का आश्वासन देकर दुष्यंत लौट गया। आश्रम आने पर कण्व को सारी घटना ज्ञात हुयी और उनहोंने शकुंतला को आशीर्वाद दिया। कुछ समय बाद शंकुतला को एक तेजस्वी बालक उत्पन्न हुवा। जिसका नाम सर्वदमन या भरत रखा गया। इतने दिन बीत जाने पर भी दुष्यंत का कोई बुलावा नहीं आया। परिणामत: भरत के जातकर्म संस्कार आदि होने पर कण्व ने शकुंतला को पातिव्रत्य धर्म का उपदेश दिया और शिष्यों के साथ राजधानी हस्तिनापुर को भेज दिया।
दुष्यंत की राज्यसभा में पहुंचकर शकुंतला ने दुष्यंत को सारी शर्तें याद दिलाईं और भरत को युवराज पद देने का आग्रह किया , परन्तु दुष्यंत ने इसके प्रस्ताव को नहीं माना और कतु शब्दों में इसकी आलोचना की। दुष्यंत की कठोर वाणी सुनकर शकुन्तला को बड़ी लज्जा आई। शकुंतला ने बार-बार धर्म की श्रेष्ठता और सूर्य आदि देवताओं की साक्षी देकर अपने प्रति न्याय करने का अनुरोध किया। शकुंतला ने पति के पत्नी और पुत्र के प्रति कर्त्तव्य दुहराए और उनका पालन का आग्रह और प्रार्थना की।
फिर भी दुष्यंत के न मानने पर शकुंतला ने यहाँ तक कह डाला ,” और तुम भरत को युवराज नहीं बनाओगे तो भरत तुम्हारे राज्य पर आक्रमण कर के स्वयं राज्याधिकारी बनेगा। ” इतने में आकाशवाणी ने दुष्यंत को बताया कि शकुंतला उसकी पत्नी है और भरत उसका पुत्र है। इस पर दुष्यंत ने दोनों को स्वीकार कर शकुंतला को पटरानी और भरत को युवराज बनाया। बाद में शकुंतला को को समझाया की लोकोपवाद के भय से शुरू में उसने इसे अस्वीकार किया था।
कालिदास द्वारा ‘ अभिज्ञानशाकुंतलम ‘ इस कथा में अनेक उपकथायें दी गयी हैं- दुर्वासा ऋषि द्वारा शाप दिया जाना, शक्राव-तीर्थ में अभिज्ञान की अंगूठी का खो जाना , राजा दुष्यंत के द्वारा शाप के कारण इसे भूल जाना, मछली के पेट से अंगूठी प्राप्त होने पर स्मृति का लौटना आदि। इनका प्राचीन साहित्य में कोई उल्लेख नहीं है। यह कवि की कल्पना ही हो सकती है।
शतपथ ब्राह्मण में शकुंतला को नाडापिती कहा गया है। आज के चौकीघाटा स्थान के पास मालिनी तट की सहस्रधारा ही प्राचीन नडपित है। इसी वन में मेनका ने विश्वामित्र का तप भंग किया था और शकुंतला के उत्पन्न होने पर उसे छोड़कर चली गयी थी। नड जाति के अनेक क्षुपों से भरा यह स्थान नडपित कहलाता था। आज भी नड जाति के अनेक पौधे एवं पीले प्यूला फूल पाए जाते हैं। आज भी यहाँ जनश्रुति है कि कुलपति कण्व यहाँ प्रतिदिन स्नान करने आते हैं। इससे प्रत्यक्ष है कि मेनका ने पुत्री को यहाँ छोड़ना क्यों उचित समझा ? मालिनी नदी के नामकरण के विषय में भी जनश्रुति है। इस नदी के तटों पर मालिनिलता नाम की विशेष लता मिलती है। इस लता की विशेषता यह है कि वह अपने प्रिय वृक्ष के वाम भाग पर ही आरोहण करती है। इसकी प्रचुरता के कारण ही नदी का नाम मालिनी पड़ा।
सिंहासन प्राप्त करने के बाद भरत अनेक बार दिग्विजय को निकला और हर बार इसने अश्वमेध यज्ञ किया। भरत भारत का महान पुत्र था। वह केवल नीतिविशारद, महावीर और महाबली ही नहीं था, एक अत्यंत सेनानी भी था। अपनी इसी विशेषता के बल पर उसने समस्त पृथ्वी को जीतकर एक बार फिर भारत के गौरव को प्रतिष्ठित किया और देश की आर्थिक स्थिति को फिर स्थायी सुदृढ़ स्तम्भों पर खड़ा किया। इन दिग्विजयों के कारण इसके राजकोष में धन अत्यधिक मात्रा में संचित हो गया था। इसका प्रमाण यह है कि भरत ने एक सहस्र स्वर्ण-कमल तो आचार्य कण्व को गुरु-दक्षिणा में दिए थे। भरत ने अपने अनन्य मित्र इंद्र को भी उच्च कोटि के हजारों अश्व भेंट किए थे।
कण्वाश्रम का मेला (Fair of Kanvashram)
मालिनी नदी के बाये तट पर चौकीघाट नामक स्थान पर 1956 से हर वर्ष ‘बसंत पंचमी’ के अवसर पर कण्वाश्रम में तीन दिन तक मेला आयोजित किया जाता है। महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’ में कण्वाश्रम (Kanvashram) का जिस तरह से जिक्र मिलता है, वे स्थल आज भी वैसे ही देखे जा सकते हैं।
कण्वाश्रम कैसे पहुंचे (How to Reach Kanvashram Birthplace of Emperor Bharat)
कण्वाश्रम ( Kanvashram ) के सबसे करीब शहर कोटद्वार (Kotdwar) है जो कि जिला- पौडी गढवाल, उत्तराखण्ड मे है। उत्तराखण्ड को देवताओं का आवास या देवभूमी भी कहा जाता है। देश की राजधानी दिल्ली से उत्तर- उत्तर- पच्छिम की ओर स्थित कोटद्वार शहर सडक, रेल तथा हवाई सेवा से देश से जुडा है।
- फ्लाइट से : जॉली ग्रांट हवाई अड्डा कोटद्वार ( Kotdwar ) गढ़वाल क्षेत्र का निकटतम हवाई अड्डा है जो 104.3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जॉली ग्रांट एयरपोर्ट दैनिक उड़ानों के साथ दिल्ली से जुड़ा हुआ है। यह एयरपोर्ट देहरादून से करीब 40 कि0मी0 की दूरी पर है। यह से लोकल टैक्सी, बसें आदि उपलब्ध रहते हैं।
- ट्रेन से : कण्वाश्रम ( Kanvashram ) के निकटतम रेलवे स्टेशन कोटद्वार और नजीबाबाद हैं। कोटद्वार (kotdwar) रेलवे स्टेशन कण्वाश्रम से 14 किलोमीटर और नजीबाबाद रेलवे स्टेशन कण्वाश्रम से 38 किलोमीटर पर स्थित है। यहाँ से टैक्सी और बसें कण्वाश्रम के लिए उपलब्ध रहती हैं।
- सड़क से : कण्वाश्रम कोटद्वार (Kotdwar) सीधे सड़कों से पौड़ी, हरिद्वार, ऋषिकेश और देहरादून, नजीबाबाद, दिल्ली आदि अन्य शहरों जुड़ा है। दिल्ली से कोटद्वार की दूरी करीब 220 कि0मी0 है। यह मार्ग- दिल्ली-मेरठ-मवाना-मीरापुर-बिजनौर-नजीबाबाद-कोटदवार है। कोटद्वार से 14 कि.मी. की दूरी पर स्थित है तथा बस, टैक्सी तथा अन्य स्थानीय यातायात की सुविधायें यहाँ उपलब्ध रहती हैं।